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बाबा लोकनाथ ब्रह्मचारी का जन्म सन् 1730 में कोलकाता के समीप चौरासी चकला नामक गाँव में हुआ था। उनके पिता श्री रामनारायण घोषाल और माता श्रीमती कमलादेवी थी। दोनों ही हृदय से भगवान के सच्चे भक्त थे। 11 साल की कम उम्र में युवा लोकनाथ ने अपने गुरु के साथ घर छोड़ दिया था। उन्होंने कोलकाता में कालीघाट मंदिर का दौरा किया और फिर 25 वर्षों तक जंगलों में ही रहे थे। निस्वार्थ भाव से अपने गुरु की सेवा की और सबसे कठिन हठयोग के साथ-साथ पतंजलि के अष्टांग योग का अभ्यास भी किया। इसके बाद उन्होंने हिमालय की यात्रा की जहां उन्होंने लगभग पांच दशकों तक नग्न अवस्था में ध्यान किया। अंततः, नब्बे वर्ष की आयु में उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ। अपने ज्ञानोदय के बाद उन्होंने अफगानिस्तान, फारस, अरब और इजरायल की पैदल यात्रा की और मक्का की तीन तीर्थयात्राएं भी कीं। जब वह ढाका के पास छोटे से शहर बरादी में आए, तो एक अमीर परिवार ने उनके लिए एक छोटा सा आश्रम बनाया। वहां उन्होंने ब्राह्मणों के पवित्र धागे को स्वीकार किया और भगवा वस्त्र धारण किया। अपने शेष जीवन में उन्होंने सभी को दिव्य ज्ञान दिया जो लोग उनका आशीर्वाद लेने के लिए उनके पास आए थे।
1 जून, सन् 1890 रविवार सुबह 11:45 बजे, बाबा लोकनाथ जी ध्यान कर रहे थे। फिर वह अपनी आँखें खुली रखते हुए समाधि में चले गए और ध्यान में रहते हुए ही उन्होंने अपना भौतिक शरीर हमेशा के लिए छोड़ दिया। तब उनकी उम्र 160 वर्ष थी। उन्होंने अपनी मृत्यु से पहले एक वादा किया था - "मैं शाश्वत हूं, मैं अमर हूं। इस शरीर के गिरने के बाद यह मत सोचो कि सब कुछ खत्म हो जायेगा। मैं अपने सूक्ष्म सूक्ष्म रूप में सभी प्राणियों के हृदय में निवास करूंगा। जो कोई मेरी शरण में आएगा, उसे सदैव मेरी कृपा प्राप्त होगी।"
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