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सरस्वती नदी पौराणिक हिन्दू ग्रन्थों तथा ऋग्वेद में वर्णित मुख्य नदियों में से एक है। ऋग्वेद में सरस्वती का अन्नवती तथा उदकवती के रूप में वर्णन आया है। ऋग्वेद में सरस्वती नदी को अम्बितम (माताओं में श्रेष्ठ), नदितम (नदियों में श्रेष्ठ) एवं देवितम (देवियों में श्रेष्ठ) नामों से वर्णित किया गया है। सरस्वती नदी को मानवीकृत रूप में देवी सरस्वती का स्वरुप माना जाता था। इसके चलते इस नदी का धार्मिक महत्व और भी बढ़ जाता है। जब हम बात सरस्वती नदी के उद्गम स्थान की बात करते हैं तो इनकी उत्पत्ति राजस्थान में अरावली पर्वत श्रृंखला के बीच से मानी जाती है, इस नदी को अलकनंदा नदी की एक सहायक नदी कहा जाता है जिसका उद्गम स्थल उत्तराखंड में बद्रीनाथ के पास है। ऋग्वेद के नदी सूत्र के एक मंत्र में सरस्वती नदी को यमुना के पूर्व में और सतलुज के पश्चिम में बहती हुई बताया गया है, उत्तर वैदिक ग्रंथ, जैसे ताण्डय और जैमिनीय ब्राह्मण में इस नदी को मरुस्थल में सूखा हुआ बताया गया है। महाभारत में भी सरस्वती नदी के मरुस्थल में श्विनाशन नामक जगह पर विलुप्त होने का वर्णन मिलता है। महाभारत में सरस्वती नदी के प्लक्षवती नदी, वेदस्मृति, वेदवती आदि कई नाम हैं। इसके अलावा महाभारत, वायु पुराण आदि में सरस्वती के विभिन्न पुत्रों के नाम और उनसे जुड़े मिथक प्राप्त होते हैं। कहा जाता है कि प्राचीन काल में सरस्वती नदी हमेशा जल से भरी रहती थी और इसके किनारे प्रचुर मात्रा में अन्न उत्पन्न होता था। यह नदी पंजाब में सिरमूर राज्य के पर्वतीय भाग से निकलकर अंबाला तथा कुरुक्षेत्र होती हुई करनाल जिला और पटियाला राज्य में प्रविष्ट होकर सिरसा जिले की दृशद्वती (कांगार) नदी में मिल गई थी। प्रयाग के निकट तक आकर यह गंगा तथा यमुना में मिलकर त्रिवेणी बन गई। कालांतर में यह इन सब स्थानों से तिरोहित हो गई। हालांकि लोगों का ऐसा मानना है कि सरस्वती नदी आज भी प्रयाग में गुप्त रुप से प्रवाहमान है।
सरस्वती नदी की उत्पत्ति
हिन्दू पौराणिक ग्रंथों के अनुसार सरस्वती नदी को भगवान ब्रह्मा की पत्नी माना गया है, जो एक श्राप के कारण पृथ्वी पर अवतरित हुईं। कहा जाता है कि सरस्वती नदी स्वर्ग में बहने वाली दूधिया नदी है, जिसके पृथ्वी पर अवतरित होने के पश्चात यह नदी मानव के लिए मृत्यु के पश्चात मोक्ष पाने का एक द्वार है।
सरस्वती नदी विलुप्त कैसे हुई?
सरस्वती नदी के विलुप्त होने को लेकर शास्त्रों में एक कथा मिलती है, जिसके अनुसार एक बार जब वेदव्यास सरस्वती नदी के तट पर भगवान गणेश को महाभारत की कथा सुना रहे थे। उस समय ऋषि ने नदी से धीमी गति से बहने का अनुरोध किया ताकि वह पाठ पूरा कर सके। शक्तिशाली सरस्वती नदी ने उनकी बात नहीं मानीं और अपने तीव्र प्रवाह को जारी रखा। नदी के इस व्यवहार से क्रोधित होकर, भगवान गणेश ने नदी को श्राप दिया कि वह एक दिन विलुप्त हो जाएंगी। और माना जाता है कि यही वजह है जिससे नदी अपना अस्तित्व खो चुकी है।
प्रयागराज में त्रिवेणी का संगम (गंगा, यमुना, सरस्वती के मिलन का स्थान) है, जिसमें स्नान मात्र से भक्तों के पाप धुल जाते हैं। यदि हम वैज्ञानिक तथ्यों की बात करें तो यह नदी हड़प्पा सभ्यता के दौरान अस्तित्व में थी। वास्तव में इस सभ्यता के कई महत्वपूर्ण भागों का निर्माण सरस्वती नदी के ही तट पर हुआ था।
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