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वैशाख कृष्ण बरूथिनी नाम एकादशी (Veshakh Krishn Barothini Naam Ekadashi)

भगवान् कृष्ण ने कहा- हे पाण्डुनन्दन ! अब मैं तुम्हें बरूथिनी एकादशी व्रत का माहात्म्य सुनाता हूँ सुनिये। वैशाख के कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम बरूथिनी है। इसी बरूथिनी एकादशी का व्रत करके महाराजा मानधाता ने मोक्ष की प्राप्ति की थी और अनेकों धुन्धुमार इत्यादि राजाओं ने इस एकादशी के व्रत को करके मुक्ति को प्राप्त किया है। अनेक प्रकार की तपस्याएँ हजारों लाखों वर्ष करने पर भी वह फल नहीं प्राप्त होता जो 'इस वैशाख कृष्ण पक्ष की एकादशी व्रत से प्राप्त होता है। अतएव इस एकादशी का व्रत प्राणीमात्र को करना चाहिये। सूर्यग्रहण में, कुरुक्षेत्र में विधिवत् स्नान-पूजा न कर सौ बार सुवर्ण दान करने का जो फल होता है वह फल केवल वैशाख कृष्ण पक्ष की बरूथिनी एकादशी का व्रत - करने से होता है। श्रद्धा और भक्ति के साथ इस - बरूथिनी एकादशी के व्रत करने वाले के समस्त मनोरथ पूर्ण होते हैं। और वह इस लोक में रहकर सुख और ऐश्वर्य का भोग करता है और अन्तकाल में स्वर्ग सुख को पाता है।

गज-दान महान् पुण्य को देने वाला और पाप एवं संताप का नाश करने वाला है। अश्वदान भी पुण्यप्रद है। मगर गजदान के समान नहीं। मगर भूमिदान का पुण्य अत्यन्त ही महान् है, उसकी तुलना में अश्वदान और गजदान एकदम तुच्छ हैं। भूमिदान से भी अधिक पुण्य फल तिल दान में है और तिलदान से भी अधिक हेम (सुवर्ण) दान में है। और सुवर्ण दान से भी अधिक पुण्य अन्नदान में है। अन्नदान महान् और अक्षय फलों को देने वाला है, इसके समान पुण्य का संचय करने वाला अन्य कोई दान नहीं। यद्यपि भूमि ही माता स्वरूप है, यही सब पदार्थों को उत्पन्न कर जगत् का पालन करती है और यही देवता, दैत्य, मनुष्य, यक्ष, गन्धर्व एवं मनुष्यों को पालने वाली है तथापि इससे भीअधिक और महान् पुण्य अन्न दान में है क्योंकि इससे भूखी आत्मा सन्तुष्ट हो आशीर्वाद देती है। यह दान यद्यपि पृथ्वी पर सर्वोपरि है तथापि कन्यादान इससे भी अधिक पुण्यप्रद और मनोरथों को पूर्ण करने वाला है। मगर अन्नदान और कन्यादान से भी श्रेष्ठ विद्यादान है। यह दान धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को देने वाला है। वैशाख मास के कृष्ण पक्ष की बरूथिनी नाम की एकादशी का व्रत करने वालों को ये सभी पुण्यफल अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं। शास्त्रों ने बताया है कि जो दुष्ट, मन्द बुद्धि वाले मनुष्य कन्या को बेच कर धन प्राप्त करते हैं वह महान् पापी होते हैं। वह अनेकों जन्म-जन्मान्तर तक नरक में वास कर अन्त में बिडाल योनि में जन्म पाते हैं। इसके विपरीत जो कोई कन्या को वस्त्र एवं अलंकारों से संयुक्त कर श्रद्धा पूर्वक दान देते हैं, उनके पुण्य फल का वर्णन शेष, शारदा और भगवान् शंकर भी नहीं कर सकते।

व्रत करने वालों को दशमी के रोज सायंकाल ही के समय एकादशी व्रत करने का संकल्प करना चाहिए। संकल्प करने के पश्चात् काँस के पात्र मेंभोजन नहीं करना चाहिए। मांस, मसूर, कोदो, साँवा, शाक, मदिरा, दूसरे का जूठा अथवा बारम्बार भोजन नहीं करना चाहिये। साथ ही साथ मन को एकाग्र कर शान्ति पूर्वक रहना चाहिए। एकादशी के दिन प्रातः काल नित्यकर्मों से निवृत्त हो स्नान कर भगवान् का पूजन एवं भजन करना चाहिये। किसी प्रकार के बुरे भावों को मन में न आने देना चाहिये। ऐसे कुत्सित कार्य जुआ, चोरी, झूठ बोलना तथा मैथुन इत्यादि न करना चाहिए। शान्ति से सात्त्विक बुद्धि धारण कर भगवान् का भजन करना चाहिये। दिन एवं रात किसी भी समय निद्रा के वशीभूत नहीं होना चाहिये। बल्कि जागरण कर भगवान् के सामने नृत्य-गीतादि करके भगवान् की आराधना एवं पूजन करना चाहिये। इस प्रकार बरूथिनी एकादशी के व्रत करने वालों के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। इस कथा के पढ़ने एवं सुनने वालों को हजारों गोदान का फल प्राप्त होता है और अन्त में विष्णुलोक की प्राप्ति होती है।

लिङ्गाष्टकम् (Lingashtakam)

ब्रह्ममुरारिसुरार्चितलिङ्गं निर्मलभासितशोभितलिङ्गम् । जन्मजदुःखविनाशकलिङ्गं तत् प्रणमामि सदाशिवलिङ्गम् ॥१॥

जिसने दी है मुझे पहचान, वो अंजनी का लाला है (Jisne Di Hai Mujhe Pahchan Vo Anjani Ka Lala Hai)

जिसने दी है मुझे पहचान,
वो अंजनी का लाला है,

प्रभु जी तुम चंदन हम पानी (Prabhuji Tum Chandan Hum Pani)

प्रभु जी तुम चंदन हम पानी,
जाकी अंग-अंग बास समानी,

भोले के कांवड़िया मस्त बड़े मत वाले हैं (Bhole Ke Kawadiya Masat Bade Matwale Hain)

चली कांवड़ियों की टोली,
सब भोले के हमजोली,