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पौष माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी को सफला एकादशी का व्रत रखा जाता है। सनातन धर्म में एकादशी तिथि का काफ़ी महत्व होता है। सफला एकादशी के दिन विधिपूर्वक पूजा-व्रत करने से भक्त को विष्णु भगवान की कृपा प्राप्त होती है और भक्त के जीवन में ठहरे हुए कार्य भी सिद्ध हो जाते हैं। इसके साथ ही घर में सुख समृद्धि का वास होता है। सफला एकादशी में व्रत कथा का विशेष महत्व है। मान्यता है कि यह व्रत कथा पढ़ने से पूजा सफल होती है और व्रत का पूर्ण फल प्राप्त होता है।
पौराणिक कथा के अनुसार चम्पावती नगरी में महिष्मान नाम का राजा हुआ करता था। उसके चार पुत्र थे। उनमें लुम्पक नाम का बड़ा राजपुत्र महापापी था। वह सदा परस्त्री और वेश्यागमन तथा दूसरे बुरे कामों में अपने पिता का धन व्यर्थ करता था। इसके साथ ही वो सदैव देवता, ब्राह्मण व वैष्णवों की भी निंदा करता था। जब राजा को अपने बड़े पुत्र के ऐसे कुकर्मों का पता चला तो उन्होंने उसे अपने राज्य से निकाल दिया। तब वह विचारने लगा कि कहां जाऊं और क्या करूं। अंत में उसने चोरी करने का निश्चय किया। इसके बाद दिन में वह वन में रहता और रात्रि को अपने पिता की ही नगरी में चोरी करता तथा प्रजा को तंग करने और उन्हें मारने का कुकर्म करता। कुछ समय पश्चात उससे सारी नगरी भयभीत हो उठी। वह वन में रहकर पशु आदि को भी मारकर खाने लगा। नागरिक और राज्य के कर्मचारी उसे पकड़ लेते किंतु राजा के भय से छोड़ देते।
वन में एक अतिप्राचीन विशाल पीपल का वृक्ष था। लोग उसकी भगवान के समान पूजा करते थे। उसी वृक्ष के नीचे वह महापापी लुम्पक रहा करता था। इस वन को लोग देवताओं की क्रीड़ास्थली मानते थे। कुछ समय पश्चात पौष कृष्ण पक्ष की दशमी के दिन वह वस्त्रहीन होने के कारण शीत के चलते सारी रात्रि सो नहीं सका। उसके हाथ-पैर अकड़ गए।
सूर्योदय होते-होते वह मूर्छित हो गया। दूसरे दिन एकादशी को मध्याह्न के समय सूर्य की गर्मी पाकर उसकी मूर्छा और तंद्रा दूर हो गई। तब गिरता-पड़ता वह भोजन की तलाश में राज्य की ओर निकल पड़ा। कमजोर होने के कारण अब पशुओं को मारने में वह समर्थ नहीं था अत: पेड़ों के नीचे गिरे हुए फल उठाकर वापस उसी पीपल वृक्ष के नीचे आकर बैठ गया। उस समय तक भगवान सूर्य अस्त हो चुके थे। वृक्ष के नीचे फल रखकर कहने लगा- हे भगवन्! अब आपको ही अर्पण हैं ये फल, आप ही इससे तृप्त हो जाइए। उस रात्रि भी भूख और दु:ख के कारण उसे नींद नहीं हुई। उसके इस उपवास और जागरण से भगवान अत्यंत प्रसन्न हो उठे और उसके सारे पाप तुरंत ही नष्ट हो गए। दूसरे दिन प्रात: एक अतिसुंदर घोड़ा अनेक सुंदर वस्तुओं से सजा हुआ उसके सामने आकर खड़ा था।
उसी समय आकाशवाणी हुई कि “हे राजपुत्र! श्री नारायण की कृपा से तेरे सभी पाप नष्ट हो चुके हैं। अब तू अपने पिता के पास जाकर राज्य प्राप्त कर। ऐसी वाणी सुनकर वह अत्यंत प्रसन्न हुआ और दिव्य वस्त्र धारण करके भगवान की जयकार करने लगा। इसके बाद उस घोड़े पर बैठ वह अपने पिता के राज्य परिसर में गया। उसके पिता ने प्रसन्न होकर उसे समस्त राज्य का भार सौंप दिया और स्वयं वन में चले गए।
अब लुम्पक शास्त्रानुसार राज्य करने लगा। अब उसकी स्त्री, पुत्र सहित सारा कुटुंब भगवान श्री नारायण का परम भक्त बन गए। वृद्ध होने पर वह भी अपने पुत्र को राज्य का भार सौंपकर वन में तपस्या करने चला गया और अंत समय में वैकुंठ धाम को प्राप्त हुआ।
इसलिए, जो भी मनुष्य इस परम पवित्र सफला एकादशी का व्रत करता है उसे अंत में मुक्ति मिलती है। जो नहीं करते वे पूंछ और सींगों से रहित पशुओं के समान बन जाते हैं। इस सफला एकादशी के माहात्म्य को पढ़ने से अथवा श्रवण करने से भी मनुष्य को अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है।
बता दें कि सफला एकादशी का व्रत हर मनुष्य अवश्य करना चाहिए। क्योंकि, जाने-अनजाने में पूरे जीवन में उससे हुए पाप कर्म दूर होकर उसे वैकुंठ में स्थान मिलता है। इतना ही नहीं, 5,000 वर्ष तप करने से जो फल मिलता है, उससे भी अधिक फल इस सफला एकादशी का व्रत करने से प्राप्त होता है।