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सनातन हिंदू धर्म में माघ पूर्णिमा का काफी महत्व है। धार्मिक मान्यता के अनुसार, माघ पूर्णिमा के दिन किए गए स्नान और दान विशेष फलदायी होता है। शास्त्रों में भी सभी पूर्णिमाओं में माघ पूर्णिमा को ही सबसे ज्यादा फलदायी माना गया है। मान्यता है कि इस दिन स्वर्ण से देवी-देवता पृथ्वी पर आते हैं और गंगा में स्नान करते हैं। इसलिए, इस दिन गंगा में स्नान करने की प्रथा है। साथ ही इस दिन माघ पूर्णिमा व्रत कथा का पाठ भी किया जाता है। तो आइए, इस आर्टिकल में माघ पूर्णिमा कथा को विस्तार पूर्वक जानते हैं।
पौराणिक कथा के अनुसार, एक नगर में धनेश्वर नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम रूपवती था। वो बहुत ही पतिव्रता और सर्वगुण संपन्न थी। परंतु, उन्हें कोई संतान नहीं थी। इसलिए, वो दोनों बहुत चिंतित रहते थे। एक बार उस नगर में एक महात्मा पधारे। उन्होंने उस नगर के सभी घरों से दान लिया परंतु धनेश्वर की पत्नी जब भी उन्हें दान देने जाती, तो वो उसे लेने से मना कर देते। एक दिन धनेश्वर महात्मा के पास गया और उसने पूछा कि “हे महात्मा! आप नगर के सभी लोगों से दान लेते हैं, परंतु मेरे घर से नहीं लेते हैं। हमसे अगर कोई भूल हुई हो तो हम ब्राह्मण दंपत्ति आपसे क्षमा याचना करते हैं। इस पर महात्मा ने कहा “नहीं तुम तो हमेशा आदर-सत्कार करने वाले ब्राह्मण हो! तुमसे भूल तो कभी भी नहीं हो सकती है।”
तब महात्मा की बात सुनकर, धनेश्वर हाथ जोड़कर बोला “हे मुनिवर! फिर आखिर क्या कारण है? कृपया हमें उससे अवगत कराएं। इसपर महात्मा बोले कि “तुम्हारी कोई संतान नहीं है। जो दंपति निसंतान हो उसके हाथ से भिक्षा कैसा ग्रहण कर सकता हूं। तुम्हारे द्वारा दिया गया दान लेने के कारण मेरा पतन हो जायेगा! बस यही कारण है कि मैं तुम्हारे घर से दान स्वीकार नहीं कर सकता।” महात्मा के ऐसे बोल सुनकर, धनेश्वर उनके चरणों में गिर पड़ा और विनती करते हुए बोला “हे महात्मा! संतान ना होना ही तो हम पति-पत्नी के जीवन की सबसे बड़ी निराशा है। यदि संतान प्राप्ति का कोई उपाय हो, तो बताने की कृपा करें।”
ब्राह्मण का दुख देखकर महात्मा बोले “हे ब्राह्मण तुम्हारे इस कष्ट का एक आसान तरीका है। तुम्हें 16 दिनों तक श्रद्धापूर्वक काली माता की पूजा कर उन्हें प्रसन्न करना होगा तो उनकी कृपा से अवश्य तुम्हें संतान की प्राप्ति होगी।” इतना सुनकर धनेश्वर बहुत खुश हुआ। उसने महात्मा का आभार प्रकट किया और घर आकर पत्नी को सारी बात बताई। इसके बाद धनेश्वर मां काली की उपासना के लिए वन चला गया। ब्राह्मण ने पूरे 16 दिन तक काली माता की पूजा की और उपवास रखा। उसकी भक्ति देखकर और विनती सुनकर काली माता ब्राह्मण के सपने में आई और बोली “हे धनेश्वर! तू निराश ना हो! मैं तुझे संतान के रूप में संतान की प्राप्ति का वरदान देती हूं! परंतु 16 साल की आयु में ही उसकी मृत्यु हो जाएगी। काली माता ने आगे कहा “यदि तुम पति-पत्नी विधिपूर्वक 32 पूर्णिमा का व्रत करोगे, तो तुम्हारी संतान दीर्घायु हो जायेगी।”
प्रातःकाल जब तुम उठोगे, तो तुम्हें यहां आम का एक वृक्ष दिखाई देगा। उस पेड़ से एक फल तोड़ना और ले जाकर अपनी पत्नी को खिला देना। शिव जी की कृपा से तुम्हारी पत्नी गर्भवती हो जाएगी। इतना कहकर माता अंतर्ध्यान हो गईं।
प्रातःकाल जब धनेश्वर उठा, तो उसे आम का वृक्ष दिखा, जिस पर बहुत ही सुंदर फल लगे थे। वो काली मां के कहे अनुसार फल तोड़ने के लिए वृक्ष पर चढ़ने लगा। उसने कई बार प्रयास किया परंतु फिर भी फल तोड़ने में असफल रहा। तभी उसने गणेश भगवान का ध्यान किया और गणपति की कृपा से इस बार वो वृक्ष पर चढ़ गया और उसने फल तोड़ लिया। धनेश्वर ने अपनी पत्नी को वो फल दिया, जिसे खाकर वो कुछ समय बाद गर्भवती हो गई।
दंपत्ति काली मां के निर्देश के अनुसार हर पूर्णिमा पर दीप जलाते रहे। कुछ दिन बाद भगवान शिव की कृपा हुईऔर ब्राह्मण की पत्नी ने एक सुंदर बेटे को जन्म दिया। उसका नाम उन्होंने देवीदास रखा। जब पुत्र 16 वर्ष का होने को हुआ, तो माता-पिता को चिंता होने लगी कि इस वर्ष उसकी मृत्यु ना हो जाए। इसपर, उन्होंने देवीदास के मामा को बुलाया और कहा “तुम देवीदास को विद्या अध्ययन के लिए काशी ले जाओ और एक वर्ष बाद वापस आना। दंपत्ति पूरी आस्था के साथ पूर्णिमा का व्रत कर पुत्र के दीर्घायु होने की कामना करने लगे। वहीं, काशी प्रस्थान के दौरान मामा भांजे एक गांव से गुजर रहे थे। वहां एक कन्या का विवाह हो रहा था, विवाह होने से पूर्व ही उसका वर अंधा हो गया। तभी वर के पिता ने देवीदास को देखा और मामा से कहा कि “तुम अपना भांजा कुछ समय के लिए हमारे पास दे दो। विवाह संपन्न हो जाए, उसके बाद ले जाना।” ये सुनकर मामा ने कहा “यदि मेरा भांजा ये विवाह करेगा, तो कन्यादान में मिले धन आदि पर हमारा अधिकार होगा। वर के पिता ने मामा की बात स्वीकार कर ली और देवीदास के साथ कन्या का विवाह संपन्न करा दिया।
इसके बाद देवीदास पत्नी के साथ भोजन करने बैठा, परंतु उसने उस थाल को हाथ नहीं लगाया। ये देखकर पत्नी बोली “स्वामी! आप भोजन क्यों नहीं कर रहे हैं? आपके चेहरे पर ये उदासी कैसी?” तब देवीदास ने सारी बात बताई। यह सुनकर कन्या बोली स्वामी मैंने अग्नि को साक्षी मानकर आपके साथ फेरे लिए हैं, अब मैं आपके अलावा किसी और को अपना पति स्वीकार नहीं करूंगी। पत्नी की बात सुनकर देवीदास ने कहा ऐसा मत कहो! मैं अल्पायु हूं और कुछ ही दिन में 16 वर्ष की आयु होते ही मेरी मृत्यु हो जाएगी। इसपर उसकी पत्नी ने कहा कि स्वामी जो भी मेरे भाग्य में लिखा होगा, वो मुझे स्वीकार है।
देवीदास ने उसे समझाने की बहुत कोशिश की परंतु, जब वो नहीं मानी, तो देवीदास ने उसे एक अंगूठी दी और कहा मैं काशी जा रहा हूं। परंतु तुम मेरा हाल जानने के लिए एक पुष्प वाटिका तैयार करो! उसमें भांति-भांति के पुष्प लगाओ और उन्हें जल से सींचती रहो! यदि वाटिका हरी भरी रहे, पुष्प खिले रहें, तो समझना कि मैं जीवित हूं। और जब ये वाटिका सूख जाए, तो मान लेना कि मेरी मृत्यु हो चुकी है। इतना कहकर देवीदास काशी चला गया।
अगले दिन सुबह जब कन्या ने दूसरे वर को देखा, तो बोली ये मेरा पति नहीं है! मेरा पति काशी पढ़ने गया है। यदि इसके साथ मेरा विवाह हुआ है तो बताए कि रात्रि में मेरे और इसके बीच क्या बातें हुई थी और इसने मुझे क्या दिया था? ये सुनकर वर बोला मुझे कुछ नहीं पता और पिता-पुत्र वहां से वापस चले गए।
कुछ दिन बाद एक दिन प्रातःकाल एक सर्प देवीदास को डसने के लिए आया, परंतु उसके माता पिता द्वारा किए जाने वाले पूर्णिमा व्रत के प्रभाव के कारण वो उसे डस नहीं पाया। इसके बाद काल स्वयं वहां आए और उसके शरीर से प्राण निकलने लगे। देवीदास बेहोश होकर गिर पड़ा। तभी वहां माता पार्वती और शिव जी आए। देवीदास को बेहोश देखकर देवी पार्वती बोलीं “हे स्वामी! देवीदास की माता ने 32 पूर्णिमा का व्रत रखा था! उसके फलस्वरूप कृपया आप इसे जीवनदान दें! माता पार्वती की बात सुनकर भगवान शिव ने देवीदास को पुनः जीवित कर दिया।”
इधर देवीदास की पत्नी ने देखा कि पुष्प वाटिका में एक भी पुष्प नहीं रहा। वो जान गई कि उसके पति की मृत्यु हो चुकी है और रोने लगी। तभी उसने देखा कि वाटिका फिर से हरी-भरी हो रही है। ये देखकर वो बहुत प्रसन्न हुई। उसे पता चल गया कि देवीदास को प्राणदान मिल गया है। जैसे ही देवीदास 16 वर्ष का हुआ, मामा भांजा काशी से वापस चल पड़े। रास्ते में जब वो कन्या के घर से गुजरे तो उसने देवीदास को पहचान लिया और खूब प्रसन्न हुई। धनेश्वर और उसकी पत्नी भी पुत्र को जीवित पाकर खुशी से फूले नहीं समाए।