नवीनतम लेख
पुराणों के अनुसार महाभारत युद्ध में अर्जुन ने भीष्म पितामह को बाणों की शैय्या पर लिटा दिया था। उस समय सूर्य दक्षिणायन था। तब भीष्म पितामह ने सूर्य के उत्तरायण होने का इंतजार करते हुए माघ मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन प्राण त्याग दिए थे। अत: इसके 3 दिन बाद ही द्वादशी तिथि पर भीष्म पितामह के लिए तर्पण और पूजन की परंपरा चली आ रही है। द्वादशी के दिन पिंड-दान, पितृ-तर्पण, तर्पण, ब्राह्मण-भोज तथा दान-पुण्य करना उत्तम होता है। तो आइए, इस आर्टिकल में इसके पीछे की दिलचस्प कथा और महत्व को विस्तार पूर्वक जानते हैं।
पौराणिक कथा के अनुसार राजा शांतनु की रानी गंगा ने देवव्रत नामक पुत्र को जन्म दिया। उसके जन्म के बाद गंगा शांतनु को छोड़कर चली गईं। शांतनु गंगा के वियोग में दुखी रहने लगे। परंतु कुछ समय बीतने के बाद शांतनु गंगा नदी पार करने के लिए मत्स्यगंधा नामक कन्या की नाव में बैठते हैं और उसके सौंदर्य और सुगंध पर मोहित हो जाते हैं।
तब राजा शांतनु कन्या के पिता के पास जाकर उनकी कन्या के साथ विवाह करने का प्रस्ताव रखते हैं। परंतु मत्स्यगंधा के पिता राजा शांतनु के समक्ष एक शर्त रखते हैं। जिसमें उनकी पुत्री को होने वाली संतान को हस्तिनापुर राज्य का उत्तराधिकार मिलेगा। शर्त मानने पर ही यह विवाह हो सकेगा। बता दें कि यही मत्स्यगंधा आगे चलकर सत्यवती नाम से प्रसिद्ध हुई।
राजा शांतनु यह शर्त मानने से इंकार करते हैं। लेकिन वे चिंतित रहने लगते हैं। देवव्रत को जब पिता की चिंता का कारण मालूम पड़ता है तो वह अपने पिता के समक्ष आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प लेते हैं। पुत्र की इस प्रतिज्ञा को सुनकर राजा शांतनु उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान देते हैं। इस प्रतिज्ञा के कारण ही देवव्रत, भीष्म के नाम से प्रसिद्ध हुए।
जब महाभारत का युद्ध होता है तो भीष्म पितामह कौरवों की तरफ से युद्ध लड़ रहे होते हैं और भीष्म पितामह के युद्ध कौशल से कौरव जीतने लगते हैं।
तब भगवान श्रीकृष्ण एक चाल चलते हैं और शिखंडी को युद्ध में उनके समक्ष खड़ा कर देते हैं। अपनी प्रतिज्ञा अनुसार शिखंडी पर शस्त्र ना उठाने के कारण भीष्म युद्ध क्षेत्र में अपने शस्त्र त्याग देते हैं। जिससे अन्य योद्धा अवसर पाते ही उन पर तीरों की बौछार शुरू कर देते हैं। महाभारत के इस महान योद्धा ने शरशैय्या पर शयन किया।
कहा जाता हैं कि सूर्य दक्षिणायन होने के कारण शास्त्रीय मतानुसार भीष्म ने अपने प्राण नहीं त्यागे और सूर्य के उत्तरायण होने पर अपने नश्वर शरीर का त्याग किया। उन्होंने अष्टमी को अपने प्राण त्याग दिए थे। उनके पूजन के लिए माघ मास की द्वादशी तिथि निश्चित की गई। इसलिए इस तिथि को भीष्म द्वादशी कहा जाता है।
मान्यता है कि भगवान श्री कृष्ण ने यह व्रत भीष्म पितामह को बताया था और उन्होंने इस व्रत का पालन किया था। जिससे इसका नाम भीष्म द्वादशी पडा।यह व्रत एकादशी के ठीक दूसरे दिन द्वादशी को किया जाता है। यह व्रत समस्त बीमारियों को मिटाता है। इस उपवास से समस्त पापों का नाश होकर मनुष्य को अमोघ फल की प्राप्ति होती है।
भीष्म द्वादशी व्रत सब प्रकार का सुख और वैभव देने वाला होता है। इस दिन उपवास करने से समस्त पापों का नाश होता है। इस दिन श्रीहरि की पूजा करने से सौभाग्य में वृद्धि, संतान आदि का सुख प्राप्त होता है।भीष्म द्वादशी पर पितरों का तर्पण करने से घर में खुशहाली आती है। वहीं, पितृ दोष के अशुभ प्रभाव भी समाप्त होने लगते हैं। बता दें कि इस दिन श्रीहरि विष्णु, भीष्म पितामह तथा पितृ देव की विधिवत पूजा, तिल से हवन एवं तिल का दान अवश्य करना चाहिए। साथ ही प्रसाद में भी तिल और तिल से बने व्यंजन और लड्डू इत्यादि अर्पित करना चाहिए।