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गया शहर के बारे में एक प्रचलित मान्यता है ये है कि गया शहर गयासुर नामक एक विशालकाय दैत्य के शरीर पर ही बसा हुआ है। वायु पुराण की मानें तो गयासुर ने कई वर्षों तक साँस रोक कर भगवान विष्णु की आराधना की थी। जिससे देवता तक भयभीत हो उठे थे। उसने खुद के सबसे पवित्र होने का वरदान माँगा, जिसके बाद उसके दर्शन से सभी को मोक्ष मिलने लगा। किवदंतियों की माने तो गयासुर का शरीर देवताओं ने विशेष यज्ञ के लिए मांग लिया। यज्ञ संपन्न होने के पश्चात इस जगह के पवित्र हो जाने का वरदान भगवान ने दिया। कहा जाता है कि धर्मराज युधिष्ठिर ने भी यहाँ अपने पिता पाण्डु का पिंडदान किया था। इतना ही नहीं गया का वैदिक नाम कई स्थानों पर ब्रह्मगया भी बताया गया है। गया शहर ब्रह्मयोनि पहाड़ियों से घिरा हुआ है। वहीं, एक अन्य मान्यता के अनुसार राजर्षि गय को भी इस नगर का संस्थापक बताया गया है, इन्होंने भी यहाँ एक भव्य यज्ञ किया था, कहा जाता है कि वो सूर्य के पौत्र थे। साथ ही माँ सीता से भी इस जगह का इतिहास जुड़ा है। इसलिए लोग श्रद्धा से गया को ‘गयाजी’ भी कहते हैं।
जिस रोचक जानकारी का जिक्र हम कर रहे हैं उसमें से एक लोककथाओं की मानें तो गयासुर ने भगवान विष्णु से प्रतिदिन एक मुंड और एक पिंड का वरदान भी माँगा था। यही कारण है कि कोरोना महामारी के दौरान भी यहां के स्थानीय पंडों ने सुनिश्चित किया कि ये परंपरा टूटने न पाए। इसी कारण कोरोना के दौरान जब एक बार श्मशान घाट में कोई भी शव नहीं जला तो डोमराजा के नेतृत्व में एक पुतले को बाँध कर उसका अंतिम संस्कार किया गया। माना जाता है कि जिस दिन ये परंपरा पूरी नहीं की, उस दिन विशाल दैत्य गयासुर जाग जाएगा।
गया के स्थानीय लोग बताते हैं कि जब किसी दिन किसी शव का अंतिम संस्कार नहीं होता है तो प्रतीकात्मक लाश की शवयात्रा निकाली जाती है। गया के स्थानीय लोग में इस परंपरा को लेकर काफी आस्थावान हैं। धार्मिक मंत्रों के साथ नकली लाश का ही अंतिम संस्कार कर दिया जाता है, अगर किसी दिन एक भी शव नहीं जला तो फल्गु नदी की धारा भी रेत के नीचे से ही बहती दिखाई देती है। पिंडदान के दौरान बालू हटाने पर पानी निकलता है। वहीं, यहां स्थित अक्षय-वट के बारे में बताया जाता है कि ये हजारों साल प्राचीन है।
विष्णुपद मंदिर में स्थित धर्मशिला के बारे में एक मान्यता ये है कि इसे स्वर्ग से ही धरती पर लाया गया है। इसके पीछे ये कहानी है कि गयासुर ने जब देवताओं को परेशान करना शुरू कर दिया तो भगवान विष्णु देवताओं के विनती पर उसका वध करने धरती पर आए, फिर उन्होंने उसके शरीर को जमीन के नीचे दबा दिया। मरते समय उसने इस स्थल के पवित्र होने का वरदान माँगा। इसलिए यहाँ बालू से पिंडदान की प्रथा है, जो माँ सीता के साथ शुरू हुई बताई जाती है। बता दें कि विष्णुपद मंदिर में पत्थर पर भगवान श्रीहरि के दाहिने पाँव का चिह्न अंकित है, जिसे हम धर्मशिला के रूप में जानते हैं। वैशाली से प्राप्त टेराकोटा की प्राचीन लिखावट से पता चलता है कि विष्णुपद मंदिर चौथी शताब्दी में भी अस्तित्व में था। बताया जाता है कि अहिल्याबाई होल्कर द्वारा इस मंदिर के निर्माण कार्य में 12 वर्ष लगे थे, साथ ही 3 लाख रुपए का व्यय भी हुआ था। राजस्थान के जयपुर की स्थापत्य कला का भी यहाँ दर्शन होता है।
गया का पुराणाों में पितृश्राद्ध एवं पिण्डदान के रूप में कई कारणों से महत्व दर्शाता गया है. बताया जाता है कि गयासुर नामक असुर ने कठिन तपस्या कर ब्रह्म जी से वरदान मांगा था कि उसका शरीर देवताओं की तरह पवित्र हो जाये और लोग उसके दर्शन मात्र से पाप मुक्त हो जाये. इस वरदान के चलते लोग भयमुक्त होकर पाप करने लगे और गयासुर के दर्शन से फिर पाप मुक्त हो जाते थे. इससे बचने के लिए देवताओं ने यज्ञ का आह्वान किया और इसके लिए गयासुर से पवित्र स्थान की मांग की गयासुर ने अपना शरीर देवताओं को यज्ञ के लिये सौंप दिया. जब गयासुर लेटा तो उस का शरीर पांच कोस में फैल गया. यही पांच कोस का क्षेत्र आगे चलकर गयाजी बन गया. कई जगहों पर ये भी उल्लेख है कि देहदान के बाद गयासुर के मन से लोगों को पाप मुक्त करने की इच्छा नहीं गई और फिर से देवताओं से वरदार मांगा कि यह स्थान लोगों के लिए पवित्र बना रहे। तब से यह स्थान लोगों के लिये श्राद्धकर्म और पितरों के आत्मा की मुक्ति का स्थान विशेष स्थान बन गया।
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