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हिंदू धर्म में सोलह संस्कारों का विशेष महत्व है। इनमें से एक महत्वपूर्ण संस्कार उपनयन संस्कार है। यह संस्कार बालक के जीवन में आध्यात्मिक चेतना का संचार करता है और उसे शिक्षा ग्रहण करने हेतु तैयार करता है। उपनयन संस्कार को संस्कृत भाषा में 'यज्ञोपवीत संस्कार' भी कहा जाता है। यह संस्कार मुख्य रूप से तीन वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य में प्रचलित है। शास्त्रों के अनुसार, इस संस्कार के बाद ही बालक को आध्यात्मिक और सामाजिक जीवन में प्रवेश कराया जा सकता है। तो आइए, इस आर्टिकल में उपनयन संस्कार के बारे में विस्तार पूर्वक जानते हैं।
उपनयन संस्कार प्राचीन काल से ही हिंदू धर्म के लोगों द्वारा निभाया जा रहा है। यह संस्कार बालक को औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार प्रदान करता है। प्राचीन काल में इस संस्कार के बाद ही बालक को गुरुकुल भेजा जाता था। गुरुकुल में ही वह वेदों, शास्त्रों और अन्य विद्याओं के बारे में अध्ययन करता था। बता दें कि उपनयन संस्कार के माध्यम से बालक को जनेऊ धारण कराया जाता है। धार्मिक मान्यता के अनुसार, यह जनेऊ मनुष्य के जीवन में अनुशासन, पवित्रता और धार्मिकता का स्तंभ माना गया है।
उपनयन संस्कार का संबंध प्राचीन वर्ण व्यवस्था से भी है। दरअसल, शास्त्रों में वर्ण व्यवस्था के अनुसार, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण के बालकों के लिए यह संस्कार अनिवार्य था। ब्राह्मण बालकों का उपनयन संस्कार आमतौर पर उनके 8वें वर्ष में किया जाता था। वहीं, क्षत्रिय बालकों का यह संस्कार 11वें वर्ष में किया जाता था। जबकि, वैश्य बालकों का उपनयन संस्कार 15वें वर्ष में होता था। इस संस्कार के बाद बालक को धार्मिक और सामाजिक कर्तव्यों के पालन की शिक्षा-दीक्षा दी जाती थी।
उपनयन संस्कार मुख्य रूप से बालकों के लिए प्रचलित है। हालांकि, कुछ ग्रंथों में बालिकाओं के लिए भी इस संस्कार का वर्णन मिलता है। बालिकाओं का उपनयन संस्कार केवल तभी किया जाता है जब वे आजीवन ब्रह्मचारिणी रहने का संकल्प लेती हैं। वर्तमान समय में बालकों की अपेक्षा बालिकाओं में यह प्रथा कम ही प्रचलित है।
आज के समय में भी उपनयन संस्कार का महत्व है। हालांकि, इसकी प्रक्रिया में कुछ बदलाव देखने को मिलते हैं। अब गुरुकुल शिक्षा प्रणाली की जगह औपचारिक विद्यालयों में जाकर बच्चे पढ़ाई आरंभ करते हैं। इसके बावजूद, यह संस्कार बालक के जीवन में एक नई शुरुआत का प्रतीक होता है।
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