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समावर्तन संस्कार, विद्या अध्ययन का अन्तिम संस्कार है। इस संस्कार में विद्या अध्ययन पूर्ण हो जाने के बाद ब्रह्मचारी शिष्य अपने आदरणीय गुरुजी की आज्ञा पाकर अपने घर लौट जाता है। इसी कारण इसे समावर्तन संस्कार कहा जाता है। गृहस्थ-जीवन में प्रवेश पाने का अधिकारी हो जाना समावर्तन-संस्कार का फल है। प्राचीन समय में शिक्षा का यह समय करीब 12 वर्ष का होता था। विद्या अध्ययन की समाप्ति के बाद समावर्तन संस्कार किया जाता था। तो आइए, इस आर्टिकल में समावर्तन संस्कार के महत्व, पौराणिक मान्यता और विधि के बारे में विस्तार पूर्वक जानते हैं।
समावर्तन संस्कार, हिंदू धर्म के 16 संस्कारों में से एक संस्कार है। यह संस्कार, विद्याध्ययन का आखिरी संस्कार होता है। इसे वेदस्नान भी कहा जाता है। बता दें कि समावर्तन संस्कार, हिंदुओं का 12वां संस्कार है। यह संस्कार, गुरुकुल से विदाई लेने से पहले किया जाता था। यह संस्कार आचार्यों द्वारा संपन्न कराया जाता है। इसमें, जीवन जीने के लिए गृहस्थाश्रम के दायित्व बताए जाते हैं। इस संस्कार में, जातक को विद्या स्नातक की उपाधि दी जाती है। इस उपाधि के बाद, जातक गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के लिए तैयार हो जाता है। इस संस्कार के बाद, जातक को सुंदर वस्त्र और आभूषण पहनाए जाते हैं। इस संस्कार के बाद, जातक आचार्यों और गुरुजनों से आशीर्वाद लेकर अपने घर के लिए विदा होता है। इस संस्कार के बाद, जातक ब्रह्मचर्य का व्रत छोड़ देता है। इस संस्कार को आमतौर पर चंद्र महीने के शुक्ल पक्ष में किया जाता है। वर्तमान में, दीक्षांत समारोह, समावर्तन संस्कार का एक उदाहरण माना जा सकता है।
वेद-मन्त्रों से अभिमन्त्रित जल से भरे हुए 8 कलशों से विशेष विधिपूर्वक ब्रह्मचारी को स्नान कराया जाता है। इसलिए, यह वेदस्नान संस्कार भी कहलाता है। समावर्तन संस्कार की वास्तविक विधि के सम्बन्ध में आश्वलायन-स्मृति के 14वें अध्याय में पांच प्रामाणिक श्लोक हैं। जिनके अनुसार केशान्त-संस्कार के बाद विधिपूर्वक स्नान के बाद वह ब्रह्मचारी वेद विद्याव्रत-स्नातक कहलाता है। इसमें शिष्य को अग्निस्थापन, परिसमूहन तथा पर्युक्षण आदि अग्नि संस्कार कर ऋग्वेद के दसवें मण्डल के 128वें सूक्त की सभी 9 ऋचाओं से समिधा का हवन करवाया जाता है। फिर गुरु दक्षिणा देकर, गुरु के चरणों का स्मरण कर उनकी आज्ञा ली जाती है और वरूण देव से प्रार्थना की जाती है। इस दौरान मंत्र पढ़ा जाता है, जो इस प्रकार है। “उदुत्तमं मुमुग्धि नो वि पाशं मध्यमं चृत। अवाधमानि जीवसे।।” जिसका अर्थ है “हे वरुणदेव! आप हमारे कटि एवं ऊर्ध्व भाग के मौजी उपवीत एवं मेखला को हटाकर सूतकी मेखला तथा उपवीत पहनने की आज्ञा दें और निर्विघ्न अग्रिम जीवन का विधान करें।”
समावर्तन संस्कार के दौरान गुरु अपने शिष्य को उसके घर लौटते समय लोक-परलोक-हितकारी एवं जीवनोपयोगी शिक्षा देते हैं।
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